अब द्वितीय सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में उन पदार्थों का वर्णन किया है कि जिन्होंने सब पदार्थ शोभित कर रक्खे हैं।
Word-Meaning: - (दर्शत) हे ज्ञान से देखने योग्य (वायो) अनन्त बलयुक्त, सब के प्राणरूप अन्तर्यामी परमेश्वर ! आप हमारे हृदय में (आयाहि) प्रकाशित हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (इमे) इन प्रत्यक्ष (सोमाः) संसारी पदार्थों को (अरंकृताः) अलंकृत अर्थात् सुशोभित कर रक्खा है। (तेषाम्) आप ही उन पदार्थों के रक्षक हैं, इससे उनकी (पाहि) रक्षा भी कीजिये, और (हवम्) हमारी स्तुति को (श्रुधि) सुनिये। तथा (दर्शत) स्पर्शादि गुणों से देखने योग्य (वायो) सब मूर्तिमान् पदार्थों का आधार और प्राणियों के जीवन का हेतु भौतिक वायु (आयाहि) सब को प्राप्त होता है, फिर जिस भौतिक वायु ने (इमे) प्रत्यक्ष (सोमाः) संसार के पदार्थों को (अरंकृताः) शोभायमान किया है, वही (तेषाम्) उन पदार्थों की (पाहि) रक्षा का हेतु है और (हवम्) जिससे सब प्राणी लोग कहने और सुनने रूप व्यवहार को (श्रुधि) कहते सुनते हैं। आगे ईश्वर और भौतिक वायु के पक्ष में प्रमाण दिखलाते हैं-(प्रवावृजे०) इस प्रमाण में वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक वायु पुष्टिकारी और जीवों को यथायोग्य कामों में पहुँचानेवाले गुणों से ग्रहण किये गये हैं। (अथातो०) जो-जो पदार्थ अन्तरिक्ष में हैं, उनमें प्रथमागामी वायु अर्थात् उन पदार्थों में रमण करनेवाला कहाता है, तथा सब जगत् को जानने से वायु शब्द करके परमेश्वर का ग्रहण होता है। तथा मनुष्य लोग वायु से प्राणायाम करके और उनके गुणों के ज्ञान द्वारा परमेश्वर और शिल्पविद्यामय यज्ञ को जान सकता है। इस अर्थ से वायु शब्द करके ईश्वर और भौतिक का ग्रहण होता है। अथवा जो चराचर जगत् में व्याप्त हो रहा है, इस अर्थ से वायु शब्द करके परमेश्वर का तथा जो सब लोकों को परिधिरूप से घेर रहा है, इस अर्थ से भौतिक का ग्रहण होता है, क्योंकि परमेश्वर अन्तर्यामिरूप और भौतिक प्राणरूप से संसार में रहनेवाले हैं। इन्हीं दो अर्थों की कहनेवाली वेद की (वायवायाहि०) यह ऋचा जाननी चाहिये। इसी प्रकार से इस ऋचा का (वायवा याहि दर्शनीये०) इत्यादि व्याख्यान निरुक्तकार ने भी किया है, सो संस्कृत में देख लेना। वहां भी वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक इन दोनों का ग्रहण है। तथा (वायुः सोमस्य०) वायु अर्थात् परमेश्वर उत्पन्न हुए जगत् की रक्षा करनेवाला और उसमें व्याप्त होकर उसके अंश-अंश के साथ भर रहा है। इस अर्थ से ईश्वर का तथा सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस हरने और समुद्रादिकों के जल को ग्रहण करने से भौतिक वायु का ग्रहण जानना चाहिये। (वायुर्वा अ०) इत्यादि वाक्यों में वायु को अग्नि के अर्थ में भी लिया है। परमेश्वर का उपदेश है कि मैं वायुरूप होकर इस जगत् को आप ही प्रकाश करता हूँ, तथा मैं ही अन्तरिक्ष लोक में भौतिक वायु को अग्नि के तुल्य परिपूर्ण और यज्ञादिकों को वायुमण्डल में पहुँचाने वाला हूँ॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है।